तालमेल एक्सप्रेस
प्रयागराज। प्रो. वासुदेव सिंह स्मृति न्यास एवं महामना मदन मोहन मालवीय हिंदी पत्रकारिता संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के केंद्रीय पुस्तकालय स्थित समिति कक्ष में “भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में साहित्य और पत्रकारिता के योगदान” विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ। जिसमें आज दूसरे दिन के पहले सत्र में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में पत्रकारिता की चुनौतियां विषय पर प्रमुख विद्वानों ने अपने अपने वक्तव्य दिए। इस संगोष्ठी के अध्यक्ष महामना मदन मोहन मालवीय हिंदी पत्रकारिता संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो ओम प्रकाश सिंह ने कहा कि आज भी समाज में बहुत सुधार की आवश्यकता है। हमारे राष्ट्रीय आंदोलन में पत्रकारिता के कई चुनौतियां थीं। रही बात भाषा की तो हिन्दी भाषा देश के हर कोने में ग्राह्य है। देश का कोई भी कोना हो, वहां हिंदी बोली पढ़ी और समझी जाती है। इसलिए हमें भाषा के परिष्कार और उसके रहस्य के अपवाद पर ध्यान देना चाहिए। हमें उस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि स्वाधीनता के समय भारतीय पत्रकारिता का परिवेश कैसा था। उस समय पत्रकारों को आर्थिक समस्या का भी सामना करना पड़ता था। उन्होंने कहा कि जब तक भारतीयों में स्वाभिमान की भावना नहीं आई तब तक आजादी की प्रेरणा नहीं मिली। संगोष्ठी के मुख्य वक्ता डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह ने हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उस दौर में एक खबर हिन्दी प्रदीप को सरकार के खिलाफ लिखने पर 3000 रुपए का जुर्माना हुआ।वहीं बनारस से प्रकाशित आज अखबार ने भी अपने जीवन में कई उतार चढ़ाव देखे। उसके संपादक पराड़कर जी को कई बार जेल जाना पड़ा। प्रेमचंद ने भी आर्थिक कारण से ही हंस को बंद कर दिया। लेकिन उन्होंने 200 रूपए घाटे पर भी जागरण अखबार का प्रकाशन किया। 1947 में आजादी के समय की स्थिति विकट थी।
उन्होंने उस स्थिति को बेधड़क जी की कविता का जिक्र करते हुए बयां किया। उन्होंने कहा कि उस समय का पत्रकार और साहित्यकार सभी आंदोलन में कूदे हुए थे। साथ ही आज के परिवेश पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज के युग में पत्रकारिता की चुनौतियां और भी ज्यादा बढ़ गई हैं। आज भाषा की समस्या है। सही विषय की समस्या है, लेकिन फिर भी यह युग नया है और नई तकनीक के साथ है। डॉ. विनोद सिंह ने जेम्स अगस्टस हिक्की की पत्रकारिता से लेकर भारतेंदु जी की पत्रकारिता का जिक्र किया। भारतेंदु का काल गद्य निर्माण का काल कहलाता है। उन चुनौतियों के बीच साहित्य और पत्रकारिता को संरक्षण देने का काम भारतेंदु जी ने किया। उन्होंने पत्रकारिता की चुनौतियों में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को साधा। उन्होंने प्रो. वासुदेव सिंह को याद किया और कहा कि गुरु जी की प्रेरणा से ही मैं पिछले तीन दशक से पत्रकारिता में सेवारत हूं। वहीं सत्र के वक्ता डॉ. अरुण कुमार शर्मा ने कहा कि आज तो मीडिया में फेक न्यूज ज्यादा छप रही है। जो की पत्रकारिता की ग्रीन जर्नलिज्म है। इस फेक न्यूज से लड़ना ही हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। आज विज्ञापन का दौर है जिसकी वजह से पैड न्यूज की चुनौतियां भी बढ़ी हैं। जिसकी वजह से पत्रकारिता में विश्वसनीयता दूर होती जा रही है।
इस मौके पर चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ से डॉ. नवीन चंद लोहानी वर्चुअल रूप से जुड़े और उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन के समय भारतीय पत्रकारिता की चुनौती पर प्रकाश डाला। संगोष्ठी के दूसरे सत्र में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन हासिए के सिपाही विषय पर प्रमुख विद्वानों ने वक्तव्य दिया साथ ही शोधार्थियों ने भी अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए। इस सत्र के अध्यक्ष डॉ. श्रद्धा नंद ने प्रो. वासुदेव सिंह को याद करते हुए कहा कि गुरु जी इतिहास के मर्मज्ञ थे, इतिहास पढ़ाना सबके बूते की बात नहीं। उन्होंने विषय पर प्रकाश डालते हुए कहा कि पत्रकारिता में साहित्य की उपस्थिति होनी चाहिए। उन्होंने हासिये के सिपाहियों से आग्रह किया कि हमारे पास पराड़कर जी का साहित्य ही नहीं है, हमें उनके साहित्य पर शोध की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि साहित्य सभी विमर्शों का सार होता है। उन्होंने प्रो. वासुदेव सिंह को नमन किया और कहा कि ऐसी संगोष्ठी हमेशा काशी विद्यापीठ में होती रहनी चाहिए क्योंकि विद्यापीठ में ही वासुदेव सिंह जी की आत्मा सुरक्षित है। इस मौके पर प्रो. गायत्री सिंह, प्रो. गायत्री माहेश्वरी, नीरज कुमार सिंह, पूजा, सीमा तिवारी आदि लोगों ने भी अपने विचार रखे। अंत में प्रो. वासुदेव सिंह की तस्वीर पर माल्यार्पण और दीप प्रज्वलन के पश्चात समापन सत्र की शुरुआत हुई। इस सत्र के अध्यक्ष डॉ. आनंद वर्धन ने रुद्र काशिकेय की पुस्तक बहती गंगा का जिक्र किया। साथ ही उन्होंने मेरठ से प्रकाशित प्रताप और बनारस से प्रकाशित भूमिगत अखबार रणभेरी का भी जिक्र किया और पत्रकार, पत्रकारिता की चुनौतियों पर प्रकाश डाला।
उन्होंने आज,स्वदेश,स्वराज,कर्मभूमि जैसे तमाम अखबारों का नाम लेते हुए कहा कि उस दौर में तमाम साहित्यकार मूलतः पत्रकार रहे हैं। इसलिए पत्रकार और साहित्यकार का पारस्परिक संबध है।
सत्र में विशिष्ट वक्ता प्रो. ओम प्रकाश सिंह ने 1857 के मुक्ति संग्राम का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि उस दौर की यह बहुत बड़ी चुनौती थी कि साहित्य कैसे गढ़ा जाय तब भारतेंदु जी अपने अखबार और पत्रिका में नव रचनाकारों को स्थान दिया। इस मौके पर उमापति दीक्षित ने कहा कि निश्चित रूप से यह ध्रुव सत्य है की साहित्य और पत्रकार का अन्योन्याश्रित संबंध है। स्वतंत्रता संग्राम के वीर गाथा को याद करते हुए आज हम इस बात का संकल्प लें कि राष्ट्रीय संगोष्ठी का यह मौका देने वाले आचार्य के दृष्टांतों और उनके शैली को हम लोग ग्रहण करें। उनके अंदर इतिहास पढ़ाने के की एक अक्षुण्ण कला थी। सत्व की बात कही गई है। हमें सत्व चाहिए तो आचार्य के पास आने की जरूरत है। समापन सत्र के अध्यक्ष डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह ने बहती गंगा, चंद्र शेखर आजाद, विश्वनाथ शर्मा आदि लोगों का जिक्र करते हुए कहा कि जिस प्रकार काशी को नहीं बांधा जा सकता उसी प्रकार प्रो. वासुदेव सिंह को भी किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। कार्यक्रम का संचालन प्रो. श्रद्धा और धन्यवाद ज्ञापन प्रो. हिमांशु शेखर सिंह ने किया। इस मौके पर शोध छात्र देवी प्रसाद तिवारी, पूजा चौधरी समेत अन्य लोग मौजूद रहे।