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प्रेमचंद की वैचारिक क्रान्ति का संचारक : हंस

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प्रेमचंद की वैचारिक क्रान्ति का संचारक : हंस
(३१ जुलाई, प्रेमचंद जयंती पर विशेष) अमर कथाकार एवं उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी नवीन मानदण्डों की स्थापना की है। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता को आपने जो नूतन दिशा दी है, वह वर्तमान राष्ट्रीय सन्दर्भों में विशेष महत्व की है। प्रेमचंद की समग्र साहित्य-साधना का केन्द्र-बिन्दु भारतीय जनजीवन का यथार्थ चित्रण करते हुए नवजागरण तथा नवीन चेतना का संचार करना था। इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु आपने पत्रकारिता के माध्यम से सांस्कृतिक पुनरुत्थान का जो संकेत किया, उसका ऐतिहासिक महत्व है। प्रेमचंद ने मर्यादा, माधुरी, जागरण तथा हंस जैसी यशस्वी पत्रिकाओं का सम्पादन किया और इसके माध्यम से साप्ताहिक एवं मासिक पत्रिकाओं के क्षेत्र में नए प्रयोग कर अभिनव मूल्य स्थापित किए। आपकी ओजस्वी व तेजस्वी पत्रकारिता का अवलोकन करने के लिए केवल मासिक पत्रिका 'हंस' का विवरण ही पर्याप्त होगा। उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद स्थित लमही नामक ग्राम में ३१ जुलाई, सन् १८८० को प्रादुर्भूत हिन्दी के यशस्वी रचनाकार मुंशी प्रेमचंद के सम्पादन में मासिक पत्रिका 'हंस' का प्रकाशन २६ मार्च, १९३० को वाराणसी से हुआ था। इसके माध्यम से वह जन-जागरण कर भारतीय स्वतंत्रता-आन्दोलन को गति प्रदान करना चाहते थे। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि वैचारिक क्रान्ति के बिना स्वराज्य-प्राप्ति संभव नहीं है। अतः 'हंस' के माध्यम से वह इसी वैचारिक क्रान्ति का पथ प्रशस्त करना चाहते थे। इसके प्रथम सम्पादकीय में पत्र के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा-- "हंस के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि इसका जन्म ऐसे शुभ अवसर पर हुआ कि जब भारत में एक नए युग का आगमन हो रहा है। जब भारत पराधीनता की बेड़ियों से निकलने के लिए तड़पने लगा है।..... इस संग्राम में हम एक दिन विजयी होंगे। भारत ने शांतिमय समर की भेरी बजा दी है। 'हंस' भी मानसरोवर की शांति तोड़कर अपनी नन्ही-सी चोंच में चुटकी भर मिट्टी को लिए हुए आजादी की जंग में योग देने चला है। यह तो हुई उसकी राजनीति। साहित्य और समाज में वह उन गुणों का परिचय देगा, जो परम्परा ने उसे प्रदान किए हैं।" मुंशी प्रेमचंद की मान्यता थी कि रक्त की क्रान्ति शासन-व्यवस्था में परिवर्तन कर सकती है, किन्तु जन-जन में सामाजिक और सांस्कृतिक नवचेतना तथा सर्जनशील संचेतना का संचार नहीं कर सकती। इसीलिए उन्होंने 'युवकों का कर्तव्य' शीर्षक टिप्पणी द्वारा युवकों का आह्वान करते हुए लिखा कि उन्हें गाँव-गांँव घूम कर स्वराज के संदेश का प्रचार-प्रसार करना चाहिए, क्योंकि जब तक उनके द्वारा इस संघर्ष में नया प्राण नहीं फूँका जाएगा, तब तक स्वराज्य-प्राप्ति असंभव है। पत्र-पत्रिकाओं की स्वतंत्रता को कुण्ठित करने के लिए जब १९३० में 'इंडियन प्रेस ऑर्डिनेंस' नामक नया प्रेस अध्यादेश घोषित किया गया, तो 'हंस' ने 'डंडा' शीर्षक अग्रलेख में व्यंग्यात्मक प्रहार करते हुए लिखा कि-- "यह बिल्कुल नया आविष्कार है और इसके लिए इंग्लैंड और भारत-- दोनों ही सरकारों की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। इसने शासन विज्ञान को कितना सरल, कितना तरल बना दिया है कि आविष्कार के सामने डंडौत करने की इच्छा होती है। अब न कानून की जरूरत है, ना व्यवस्था की। कौंसिलें और असेंबलियाँ सब व्यर्थ, अदालतें और महकमें सब फिजूल। डंडा क्या नहीं कर सकता? वह अजेय है, सर्वशक्तिमान है।" इस ऐक्ट के दमन-चक्र से 'हंस' भी न बच सका। अप्रैल, १९३२ में 'दमन की सीमा' नामक लेख प्रकाशित करने के कारण इससे एक हजार रूपए की जमानत माँगी गयी, किन्तु बाद में यह आदेश निरस्त कर दिया गया। इसके जुलाई, १९३३ के अंक में श्री शिवनारायण टण्डन की प्रकाशित 'क्रान्तिकारी की माँ' नामक कहानी को आपत्तिजनक मानते हुए जिलाधीश बनारस द्वारा सम्पादक प्रेमचंद को चेतावनी दी गयी। इसके जून-जुलाई, १९३६ के अंक में 'स्वातंत्र सिद्धान्त' नामक नाटक प्रकाशित हुआ, जिस कारण प्रेस ऐक्ट की धारा ७(३) के अन्तर्गत इससे एक हजार रूपए की जमानत माँगी गयी। उपर्युक्त कठोर सरकारी प्रतिबंधों के बावजूद 'हंस' निरन्तर जन-जागरण अभियान में रत रहा। मुंशी प्रेमचंद भारत की सनातनी परम्परा के पोषक थे। वह भारतीयों द्वारा पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण किए जाने से अत्यन्त चिंतित थे। इसीलिए वह दैहिक पराधीनता से मुक्ति के साथ-साथ मानसिक पराधीनता से मुक्ति के भी आकांक्षी थे। 'हंस' के जनवरी, १९३१ के सम्पादकीय में उनके विचार स्पष्ट हैं-- "हम दैहिक पराधीनता से मुक्त होना तो चाहते हैं, पर मानसिक पराधीनता से अपने आपको स्वेच्छा से जकड़ते जा रहे हैं। हमारी सभ्यता कृषि प्रधान थी। हम गाँवों में रहते थे, जहाँ अपने आत्मीयजनों का संसर्ग बहुत सी बुराइयों से हमारी रक्षा करता था। पश्चिमी सभ्यता व्यवसाय प्रधान है और बड़े-बड़े नगरों का निर्माण करती है, जहाँ हम सभी बंधनों से मुक्त होकर दुराचरण में पड़ जाते हैं।........ हमारी सभ्यता में नम्रता का बड़ा महत्व था। पश्चिमी सभ्यता में आत्मप्रशंसा को वही स्थान प्राप्त है। अपने को खूब सराहो, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनो। हमारी सभ्यता में धन का स्थान गौण था, विद्या और आचरण से आदर मिलता था। पश्चिमी सभ्यता में धन ही मुख्य वस्तु है। हमारी सभ्यता का आधार धर्म था, पश्चिमी सभ्यता का आधार संघर्ष है। लेकिन यहाँ हम अपने सद्गुणों की प्रशंसा नहीं करने बैठे हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि हममें हर एक पश्चिमी चीज के पीछे आँखें बंद करके चलने की जो प्रवृत्ति हो रही है, वह केवल हमारी मानसिक पराजय के कारण।" इस प्रकार, प्रेमचंद ने 'हंस' को राष्ट्रीय मुक्ति-संग्राम का महत्वपूर्ण आधार बनाया। आपने लोक-शिक्षण और राष्ट्रीय जागरण की ऐसी ज्योति जलायी, जिसने पराधीनता की कुण्ठा और दासता की दीनता को राष्ट्रीय पराक्रम, निर्भीकता और मुक्ति अभियान को अमर प्रेरणा प्रदान की। उन्हीं के सम्पादकत्व में 'हंस' हिन्दी की प्रगति में अत्यन्त सहायक सिद्ध हुई। सन् १९३३ में प्रेमचंद ने इसका 'काशी विशेषांक' बड़े परिश्रम से निकाला। वे सन् १८३० से १९३६ ई. तक इसके सम्पादक रहे। उनके बाद जैनेन्द्र और शिवरानी देवी ने इसका सम्पादन प्रारम्भ किया। इसके विशेषाकों में 'प्रेमचंद स्मृति अंक', 'एकांकी-नाटक अंक', 'रेखाचित्र अंक', 'कहानी अंक', 'प्रगति अंक' तथा 'शांति अंक' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जैनेन्द्र और शिवरानी देवी के बाद; इसके सम्पादक शिवदान सिंह चौहान और श्रीपत राय, फिर अमृत राय और फिर नरोत्तम नागर रहे। अपने तेजस्वी और निर्भीक सम्पादकीय के कारण प्रेमचंद की पत्रकारिता में 'हंस' का विशेष स्थान है। जन्म-जयंती पर हिन्दी साहित्य-सरोवर के अप्रतिम 'हंस' को सादर नमन।

डॉ. हिमांशु शेखर सिंह
अध्यक्ष- हिन्दी विभाग
नेहरू ग्राम भारती मानित विश्वविद्यालय
प्रयागराज, उत्तर प्रदेश।

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