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मोदी का तीसरा कार्यकाल: महत्वाकांक्षाओं को किन चुनौतियों से जूझना होगा?

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नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव में भारी जीत की उम्मीद की थी.

पिछले लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले कम हुई सीटों के बावजूद मोदी को मिली तीसरी जीत का असर भारत के लिए वैश्विक मंच पर कैसा होगा?

ब्रिटेन स्थित थिंक टैंक चैटम हाउस में दक्षिण एशिया के सीनियर रिसर्च फेलो डॉक्टर क्षितिज बाजपेयी कहते हैं, “विदेश नीति के मोर्चे पर चाहे वो मजबूत जनादेश से आएं या कमज़ोर से, भारत को निवेश के लिए आकर्षक गंतव्य बनाने की प्राथमिकता का अपना लक्ष्य वो हासिल करेंगे.”

बीजेपी का घोषणापत्र भारत को ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग हब बनाने की बात करता है और डॉक्टर बाजपेयी मानते हैं कि अगले पांच साल के कार्यकाल में इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए बड़ा प्रयास किया जाएगा.

हालांकि, बीजेपी की लगातार ये तीसरी चुनावी जीत पश्चिमी देशों के लिए आशा और साथ ही साथ सावधानी लेकर आई है.

कुछ जानकार ये मानते हैं कि मोदी की विदेश नीति और अधिक मजबूत हो सकती है. ये हिंदुत्व की उनकी मूल विचारधारा के ईर्द-गिर्द घूमेगी.

अलग-अलग है विश्लेषकों की राय

कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में सीनियर फेलो ओर दक्षिण एशिया कार्यकम के डायरेक्टर मिलन वैष्णव इससे सहमत नहीं हैं.

वो कहते हैं, “मुझे उम्मीद नहीं है कि एनडीए के तीसरे कार्यकाल में विदेश नीति में कोई खास बदलाव आएगा क्योंकि हम जो भू-राजनीतिक बदलाव देख रहे हैं, वो संरचनात्मक हैं. यही बदलाव भारत को अपनी ताक़त बढ़ाने में मदद कर रहे हैं. कमज़ोर होते अमेरिका, विस्तारवादी चीन और ‘विद्रोही’ रूस सामूहिक रूप से वैश्विक परिदृश्य पर भारत की केंद्रीय भूमिका को बढ़ाते हैं.”

एक भू-राजनीतिक और आर्थिक खिलाड़ी के तौर पर मोदी के नेतृत्व में भारत का उदय निर्विवाद है.

विश्लेषकों का कहना है कि चीन के ख़िलाफ़ सुरक्षा कवच के तौर पर अमेरिका के साथ भारत की साझेदारी अगले पांच साल में और मजबूत होने की उम्मीद है.

हालांकि, इसके मजूबत होने के साथ ही लोकतांत्रिक गिरावट के बारे में चिंताएं भी हैं.

विश्लेषकों का कहना है कि मोदी जानते हैं कि वैश्विक मंच देश की लोकतांत्रिक साख के बारे में बात किए बिना वो अपनी वैश्विक महत्वकांक्षाओं को हासिल नहीं कर सकते.

उदाहरण के लिए ठीक एक साल पहले जब नरेंद्र मोदी अमेरिका के ऐतिहासिक राजकीय दौरे पर थे, तो 70 से अधिक सांसदों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को पत्र लिखा था.

इस पत्र में आग्रह किया गया था कि बाइडन, मोदी से भारत में लोकतंत्र की गिरावट और प्रेस की आज़ादी के सिकुड़ने पर चिंता व्यक्त करें.

ये साफ़ नहीं है कि क्या बाइडन ने मोदी के साथ निजी तौर पर हुई चर्चा में इन चिंताओं के बारे में बात की या नहीं.

हालांकि, सार्वजनिक तौर पर मोदी का स्वागत एक नायक जैसा हुआ था. इससे भी अहम बात ये है कि मोदी ने गर्व के साथ भारत की लोकतांत्रिक साख के बारे में बताते हुए भारत को ”लोकतंत्र की जननी” भी कहा था.

लोकतंत्र की जीत का प्रतीक या चुनौती?

मिलन वैष्णव का मानना है कि भारत की दुनिया में लोकतांत्रिक छवि बेहद अहम है.

वो कहते हैं, ”उदारवाद में गिरावट आई है लेकिन चुनावी लोकतंत्र मजबूत बना हुआ है, ऐसा इन चुनाव से स्पष्ट हुआ है. इस तरह की चुनावी प्रतिस्पर्धा से भारतीय नेतृत्व को काफी संभावनाएं हासिल हुई हैं, भले ही संस्थाएं कमज़ोर हुई हैं, मौलिक स्वतंत्रता में कमी आई है और सरकार की दमनकारी शक्तियां बढ़ी हैं. चुनावी लोकतंत्र के बुनियादी नियमों का पालन बीजेपी के हित में है.”

ऐसे में सवाल ये है कि क्या नतीजे भारतीय लोकतंत्र की जीत का प्रतीक है या इससे चुनौतियां पैदा होंगी?

इस चुनाव में पक्षपात के जो आरोप लगे हैं, ऐसा नहीं है कि पश्चिमी देशों में इस पर ध्यान नहीं गया है.

इसमें विपक्ष के दो मुख्यमंत्रियों का गिरफ़्तार होना, कांग्रेस पार्टी के बैंक अकाउंट का फ्रीज़ होना और बीजेपी के पक्ष में इलेक्टोरल बॉन्ड का जाना शामिल है.

इसके अलावा, मोदी को अपने चुनावी अभियान के दौरान ‘इस्लामोफोबिक’ बयानबाज़ी के लिए भारी आलोचना का सामना करना पड़ा.

वैष्णव का मानना है कि इस तरह के असमान व्यवहार के बावजूद विपक्ष ने अच्छा प्रदर्शन किया है.

वो कहते हैं, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि इन चुनावों में खेल का मैदान विपक्ष के ख़िलाफ़ झुका हुआ था. भले ही आप इसे किसी भी तरह देखें- चाहे वो इलेक्शन फाइनेंसिंग हो, जांच एजेंसियों का इस्तेमाल हो, मीडिया का प्रभाव हो या अपेक्षाकृत शांत चुनाव आयोग. इन सभी चुनौतियों के बाद विपक्ष ने अपेक्षा से बेहतर प्रदर्शन किया है.”

बाजपेयी भी इस चुनाव में विवाद की बात को स्वीकार करते हैं.

वो कहते हैं, “निश्चित तौर पर चुनाव बिना विवाद के नहीं रहे हैं. लेकिन हम यहां जो देख रहे हैं वो ये है कि भारत एक आदर्श लोकतंत्र नहीं है लेकिन यहां लोकतंत्र तो है. प्रकियात्मक स्तर पर, भारतीय लोकतंत्र काफी हद तक बरकरार है.”

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चैटम हाउस के बाजपेयी को नहीं लगता कि इसकी कोई संभावना होगी.

वो कहते हैं, “साफ़ तौर पर नहीं. चीन मुख्य बाधा है, जो अब भी भारत का विरोध करता है. आपको इसके लिए पी-5 सदस्यों की सहमति की ज़रूरत होती है. आपके बोर्ड में चार सदस्य हैं लेकिन चीन इसका विरोध करता है.”

विदेश नीति पर भारत का रुख उसकी ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ पर आधारित है.

भारत की अमेरिका और यूरोपीय संघ के साथ मजबूत साझेदारी है और रूस के साथ भी ऐतिहासिक संबंध हैं. भारत को यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूसी हमले का समर्थन करने के लिए उकसाया गया. लेकिन भारत ने अपनी तटस्थता बरकरार रखी है.

स्टीव हैंकी कहते हैं, “जहां तक कि विदेशी मामलों की बात है तो पीएम मोदी के पास सुब्रह्मण्यम जयशंकर जैसे बढ़िया विदेश मंत्री हैं. मोदी-जयशंकर की जोड़ी रणनीति को कुशलतापूर्वक संभालती है. यो जोड़ी अतीत में भारतीय विदेश नीति से प्रभावित नहीं होते हैं. मुझे आशा है कि वो सफल होते रहेंगे.”

डॉ. बाजपेयी बताते हैं, “रूस और यूक्रेन पर भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और यूक्रेन पर आक्रमण के लिए राष्ट्रपति पुतिन की खुले तौर पर निंदा करने से इनकार करना पश्चिमी देशों के लिहाज से अच्छा नहीं रहा. इस बात के कोई संकेत नहीं है कि मोदी इस कार्यकाल में भी अपने पुराने भारतीय दोस्त पुतिन का साथ छोड़ेंगे. लेकिन भारत की नीति विश्वामित्र और विश्वगुरु के अपनी प्राचीन दर्शन पर आधारित है. ये गैर-पश्चिम है लेकिन पश्चिम विरोधी नहीं है.”

जैसे-जैसे भारत का बाक़ी दुनिया पर असर बढ़ रहा है, पीएम मोदी की नेतृत्व की परीक्षा होगी ताकि देश की उन्नति रणनीतिक और टिकाऊ हो.

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